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परिशिष्ट
बड़ा
सबसे
सुख - दुःख मन की झूठी चीजें, प्रेम आनंदित रहते हैं प्रेमी, कोटि कोटि संकट
पति-पत्नी में जहाँ प्रेम का,
सागर
अमृत दु:ख द्वन्द्व क्या कभी भूलकर, वहाँ फटकने भी
योग्य सहचरी पंकार नर का, हो जाता है दुःख
-
पत्नी हो यदि कुटिल - कर्कशा,
सच्चा
सेवक भी स्नेहार्द्र वंश में, एकमेक हो जाता
-
स्वामी के सुख में सुख, दुःख मेंदुःख की धार
मैत्री के
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लहराता ।
सहकर ॥
भूमण्डल में मित्र शब्द भी,
कैसा जादू रखता स्नेह-सूत्र से दो हृदयों को,
अविकल बाँधे रखता
ऊपर ।
मित्र वही ग्रंथों में, जगत् श्रेष्ठ कहलाया को जिसने,
आता ?
बहाता
सुख में भी दुःख की बाधा || (६८)
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आधा ।
है ।
है ॥
है ।
है ॥
है ।
प्रण
'अथ' से 'इति' तलक निभाया है ॥
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