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________________ परिशिष्ट बड़ा सबसे सुख - दुःख मन की झूठी चीजें, प्रेम आनंदित रहते हैं प्रेमी, कोटि कोटि संकट पति-पत्नी में जहाँ प्रेम का, सागर अमृत दु:ख द्वन्द्व क्या कभी भूलकर, वहाँ फटकने भी योग्य सहचरी पंकार नर का, हो जाता है दुःख - पत्नी हो यदि कुटिल - कर्कशा, सच्चा सेवक भी स्नेहार्द्र वंश में, एकमेक हो जाता - स्वामी के सुख में सुख, दुःख मेंदुःख की धार मैत्री के Jain Education International लहराता । सहकर ॥ भूमण्डल में मित्र शब्द भी, कैसा जादू रखता स्नेह-सूत्र से दो हृदयों को, अविकल बाँधे रखता ऊपर । मित्र वही ग्रंथों में, जगत् श्रेष्ठ कहलाया को जिसने, आता ? बहाता सुख में भी दुःख की बाधा || (६८) For Private & Personal Use Only आधा । है । है ॥ है । है ॥ है । प्रण 'अथ' से 'इति' तलक निभाया है ॥ १७२ (६६) (६७) (६६) (७०) (७१) www.jainelibrary.org
SR No.001218
Book TitleDharmavir Sudarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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