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परिशिष्ट
नर-जीवन में धूप - छाँह-सा
सुख-दुख का चिर नाता है॥ (२६ बाहर के सुख में भी दुःख की,
काली घटा उमड़ती है। कभी बाह्य दुःख में भी सुख की
मधु - मय गंगा बहती है॥ (३० मानव चाहे कितना ही हो,
फंसा असह्य परिस्थिति में। अन्तर का उद्दीप्त तेज
छिपता न विपद की हुंकृति में ॥ (३१ लक्षाधिक नक्षत्र गगन में,
निज - निज किरणें चमकाते । किन्तु प्रभा शशि-मण्डल की,
___ फीकी न जरा भी कर पाते ।। (३२ संसृति में जितने भी अच्छे.
कार्य कष्ट से साध्य सभी । बिना अग्नि में पड़े स्वर्ण का,
रूप दमकता नहीं कभी॥ (३३ आँधी के चक्कर में टीबे,
रेती के उड़ जाते हैं। लेकिन दुर्गम उन्नत पर्वत,
कभी न हिलने पाते हैं ॥ (३४ आँखों के खारे पानी से
किसका जग में काम चला ?
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