Book Title: Dharmavir Sudarshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 185
________________ परिशिष्ट पी जाते हैं विष वार्ता भी चित्त नहीं दुर्जन की क्या उलटी गति है, हानि देखकर खुश हिम प्रस्तर ज्यों धान्य नष्टकर, हृदय कपट से मुख दुर्वच से करते होता । खुद भी गलकर तन खोता ! रहता है दिन रात दुष्ट का, अन्तर जीवन नेत्र क्रोध से भरा - दुर्जन जन की कुछ मत पूछो, बिना प्रयोजन पाप गर्त में हंस-हंस गिरता, कैसा - जीवन Jain Education International वर्षा में सब वृक्षावलियाँ हरी भरी हो जाती हैं किन्तु जवासे की शाखाएँ नित्य सूखती जाती हैं ! सज्जन कर उपकार किसी पर नहीं याद मन सड़ा स्वार्थ सिद्ध हो तदपि न सज्जन, पाप - पंक में फंसता साधारण जन स्वार्थ पूर्ति के - लिए विवश हो धँसता १६२ चंचल ॥ हुआ । हुआ | For Private & Personal Use Only है। है ॥ ही पापी । अभिशापी ? में लाते । (५) (६) (७) (८) (t) (१०) www.jainelibrary.org

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