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परिशिष्ट
पी जाते हैं विष वार्ता भी चित्त नहीं
दुर्जन की क्या उलटी गति है, हानि देखकर खुश
हिम प्रस्तर ज्यों धान्य नष्टकर,
हृदय कपट से मुख दुर्वच से
करते
होता ।
खुद भी गलकर तन खोता !
रहता है दिन रात दुष्ट का, अन्तर जीवन
नेत्र क्रोध से भरा
-
दुर्जन जन की कुछ मत पूछो, बिना प्रयोजन पाप गर्त में हंस-हंस गिरता, कैसा - जीवन
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वर्षा में सब वृक्षावलियाँ
हरी भरी हो जाती हैं किन्तु जवासे की शाखाएँ
नित्य सूखती जाती
हैं !
सज्जन कर उपकार किसी पर
नहीं
याद मन
सड़ा
स्वार्थ सिद्ध हो तदपि न सज्जन,
पाप - पंक में फंसता साधारण जन स्वार्थ पूर्ति के -
लिए विवश हो धँसता
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चंचल ॥
हुआ ।
हुआ |
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है।
है ॥
ही पापी ।
अभिशापी ?
में लाते ।
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