Book Title: Dharmavir Sudarshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 178
________________ धर्म-वीर सुदर्शन दैवी छल - बल गर्वमत्त, इस ओर शान्तमूर्ति उस ओर अकेला, निश्चल निष्कल भयंकर बाधक है । साधक है ।। वज्र - भित्ति पर लौह - घात का, होता है क्या कभी असर ? संसारी छल-बल से क्यों कर, डिग सकता है मुनि - प्रवर ? ज्यों-ज्यों अभया अधिकाधिक, अत्युग्र ताड़ना करती है । त्यों-त्यों मुनि-मानस में, शुक्ल - ज्योति अतीव उभरती है ।। पूर्ण दशा पर शुक्ल - ध्यान-बल, केवलज्ञान पहुँचा तो भगवान हुए । अखंडित प्रगटा, नष्ट अखिल हुए ॥ केवल - महिमा करने को सुरवृन्द स्वर्ग से दुंदुभि - बाघ बजे नभ - तल में, गन्धोदक Jain Education International देव - सभा में श्रीजिन बोले, वाणी मीठी आत्म-शुद्धि का मार्ग बताया, धर्मामृत की १५५ अज्ञान आया है । है ॥ बरसाया सुधा - भरी । वृष्टि करी ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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