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धर्म-वीर सुदर्शन
दैवी छल - बल गर्वमत्त, इस ओर
शान्तमूर्ति उस ओर अकेला, निश्चल निष्कल
भयंकर बाधक है ।
साधक है ।।
वज्र - भित्ति पर लौह - घात का,
होता है क्या कभी असर ? संसारी छल-बल से क्यों कर, डिग सकता
है मुनि - प्रवर ?
ज्यों-ज्यों अभया अधिकाधिक,
अत्युग्र ताड़ना करती है । त्यों-त्यों मुनि-मानस में,
शुक्ल - ज्योति अतीव उभरती है ।।
पूर्ण दशा पर शुक्ल - ध्यान-बल,
केवलज्ञान
पहुँचा तो भगवान हुए । अखंडित प्रगटा, नष्ट अखिल
हुए ॥
केवल - महिमा करने को सुरवृन्द स्वर्ग
से
दुंदुभि - बाघ बजे नभ - तल में, गन्धोदक
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देव - सभा में श्रीजिन बोले,
वाणी मीठी
आत्म-शुद्धि का मार्ग बताया, धर्मामृत
की
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अज्ञान
आया है ।
है ॥
बरसाया
सुधा - भरी ।
वृष्टि करी ॥
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