Book Title: Dharmavir Sudarshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 173
________________ सर्ग पन्द्रह पूर्णता पूर्ण त्याग की साधना, करती कलिमल चूर्ण; हो जाता पामर मनुज परमात्मा प्रतिपूर्ण । मानव - भव के तुल्य विश्व में, और न वस्तु अनूठी है । जो कुछ महिमा है, इसकी है, और बात सब झूठी है ॥ स्वर्ग-लोक के श्रेष्ठ देव भी, एतदर्थ नित झुरते हैं । पाएँ कब नर-जन्म मुक्तिप्रद, यही कामना करते हैं । जीवात्मा बन बहुरूपिया, लख चौरासी रुलता है । मुक्ति -द्वार यदि खुलता है, तो मात्र यहीं पर खुलता है ॥ मानव-भव का लक्ष्य नहीं है, भव - सागर में रुक रहना । जाना परले पार, भले ही, कष्ट पड़े कुछ भी सहना । १५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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