________________
पूर्णता के पथ पर
साधु -वृत्ति का ले लेना,
कुछ बच्चों का है खेल नहीं ।
मेल नहीं ॥
भोग-विलासी जीवन का याँ, खाता बिल्कुल
त्याग - क्षेत्र के पूर्ण परीक्षित, योद्धा तुम हो,
किन्तु हमारा संयम पथ भी
भिक्षु-मार्ग पर चलना तो बस, नग्न खङ्ग पर जीवन्मृत ही चलता इस पर, जो बहिरन्तः
बड़ा विकट है, श्रेष्ठि-प्रवर ॥
भक्ति - नम्र हो कहा सेठ ने,
संयम भार हिमाचल - सा है,
Jain Education International
आदि काल से, किन्तु, मनुज, ही इसे उठाता कुछ भी दुष्कर, कार्य न
साहस हो तो,
नहीं कसर ।
"प्रभो ! आपका सत्य वचन |
मैं भी तो हूँ मनुज साहसी,
धावन है ।
उठा न सकता दुर्बल मन ॥
अन्तस्तल से सदाकाल को, क्यों
पावन
आया है ।
जग में पाया है ॥
है ।"
१४२
क्यों न भिक्षुपथ ग्रहण करूँ ?
न पापमल हरण करूँ ?
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org