Book Title: Dharmavir Sudarshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 170
________________ धर्म-वीर सुदर्शन त्रिया चरित के छल-बल सारे, शीश पीट कर रह जाते ॥” कहा तुनक कर हरिणी ने, "यह कभी नहीं हो सकता है । कैसा भी हो पुरुष, किन्तु, वह हम पर सब खो सकता है ॥" रंभा ने इस पर श्रेष्ठी का, सुनाया है । सारा वृत्त डर न जाय, अतएव शूली, आदिक का हाल छुपाया है ॥ और कहा – “देखो, वह श्रेष्ठी, - आज साधु बन कर फिरता । भिक्षा माँग रहा घर-घर से, उत्कट है तप की स्थिरता ॥ " वेश्या हँस कर बोली " रंभा ! तूने भी यह राजमहल में इन बातों की, मैं गणिका हूँ, परम्परा से, यह ही पेशा जगत्प्रतिष्ठित सुजनों को भी, फँसा जाल आ सकती है गन्ध कैसे झटपट रूप - दीप पर, Jain Education International काम असीम महासागर है, देखूँ कैसे खूब कही । नहीं ॥ १४७ यह पतंग भी गिरता है ? तिरता है ?" मेरा में गेरा है ॥ है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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