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धर्म-वीर सुदर्शन
त्रिया चरित के छल-बल सारे,
शीश पीट कर रह जाते ॥”
कहा तुनक कर हरिणी ने,
"यह कभी नहीं हो सकता है । कैसा भी हो पुरुष, किन्तु,
वह हम पर सब खो सकता है ॥"
रंभा ने इस पर श्रेष्ठी का,
सुनाया है ।
सारा वृत्त डर न जाय, अतएव शूली, आदिक का हाल छुपाया है ॥
और कहा – “देखो, वह श्रेष्ठी,
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आज साधु बन कर फिरता । भिक्षा माँग रहा घर-घर से, उत्कट है तप की
स्थिरता ॥ "
वेश्या हँस कर बोली " रंभा ! तूने भी यह राजमहल में इन बातों की,
मैं गणिका हूँ, परम्परा से, यह ही पेशा जगत्प्रतिष्ठित सुजनों को भी, फँसा जाल
आ सकती है गन्ध
कैसे झटपट रूप - दीप पर,
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काम असीम महासागर है,
देखूँ
कैसे
खूब कही ।
नहीं ॥
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यह पतंग भी गिरता है ?
तिरता
है ?"
मेरा
में गेरा है ॥
है ।
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