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धर्म-वीर सुदर्शन सदाचार की ज्योति जगादी,
विस्मित सब संसार हुआ ॥ धर्माराधन कभी न निष्फल,
__ तीन काल में होता है । एक मात्र इस ही के बल पर,
विश्ववन्ध नर होता है ।" धर्म-घोष गुरु की वाणी से,
पूर्व जन्म का चित्र समस्त । प्रतिबिम्बित हो उठा सेठ के,
मानस - दर्पण में अभ्यस्त । परिषद् में हो खड़े सेठ ने,
कहा-“धन्य गुरु ज्ञानी हैं । जो कुछ तुमने कही, स्मृति में,
झलकी सभी निशानी हैं । पूर्व जन्म में जो कुछ बोया,
उसका फल याँ पाया है । जीवन-पथ में सभी ठौर,
'करनी' का गौरव गाया है ।। अस्तु आपकी सेवा में अब,
अग्रिम जन्म सुधारूँगा । त्याग शीघ्र गृहवास, श्रेष्ठतम,
मुनिपद का व्रत धारूँगा ।" धर्मघोष गुरु बोले-“सहसा,
नहीं शीघ्रता करिएगा । समझ बूझकर भली भाँति,
इस पथ पै निज पद धरिएगा ।।
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