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धर्म-वीर सुदर्शन धनाभाव से त्रस्त दीन जन,
भी पाते थे पय पावन । गायों को तू सुभग सर्वदा,
वन में लेकर जाता था । प्रेम भाव से चरा-फिरा कर,
निज कर्त्तव्य निभाता था । एक समय की बात, विपिन में,
ध्यानावस्थित मुनि देखे । वृक्षमूल में शान्त-मूर्ति दृढ़,
पद्मासन से थे बैठे ॥ मंत्र-मुग्ध सा हुआ सुभग,
श्रीमुनिवर के कर प्रिय दर्शन । शान्त, सौम्य हो गया आप ही,
तन्मय होकर चंचल मन ॥ उच्चस्वर से मंत्रराज का,
पढ़कर प्यारा प्रथम चरण । गगनाङ्गण में उड़े तपस्वी,
लगा विलम्ब न कुछ भी क्षण ॥ ग्वाल सुभग भी चकित हुआ,
- सुन लगा उसी दिन से रटने । श्वास-श्वास के साथ मधुर,
झनकार लगी क्रमशः बढ़ने ॥ चमत्कार प्रत्यक्ष आँख से.
देख किसे विश्वास न हो ? अन्धकारमय हृदय, गुहा में,
क्यों फिर ज्ञान प्रकाश न हो ?
हा,
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