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________________ धर्म-वीर सुदर्शन धनाभाव से त्रस्त दीन जन, भी पाते थे पय पावन । गायों को तू सुभग सर्वदा, वन में लेकर जाता था । प्रेम भाव से चरा-फिरा कर, निज कर्त्तव्य निभाता था । एक समय की बात, विपिन में, ध्यानावस्थित मुनि देखे । वृक्षमूल में शान्त-मूर्ति दृढ़, पद्मासन से थे बैठे ॥ मंत्र-मुग्ध सा हुआ सुभग, श्रीमुनिवर के कर प्रिय दर्शन । शान्त, सौम्य हो गया आप ही, तन्मय होकर चंचल मन ॥ उच्चस्वर से मंत्रराज का, पढ़कर प्यारा प्रथम चरण । गगनाङ्गण में उड़े तपस्वी, लगा विलम्ब न कुछ भी क्षण ॥ ग्वाल सुभग भी चकित हुआ, - सुन लगा उसी दिन से रटने । श्वास-श्वास के साथ मधुर, झनकार लगी क्रमशः बढ़ने ॥ चमत्कार प्रत्यक्ष आँख से. देख किसे विश्वास न हो ? अन्धकारमय हृदय, गुहा में, क्यों फिर ज्ञान प्रकाश न हो ? हा, - १३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001218
Book TitleDharmavir Sudarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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