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________________ पूर्णता के पथ पर पता लगा जब श्रेष्ठी को तो, हृदय हर्ष से भर आया । जैन धर्म के श्रावक-पद का, क्रिया - काण्ड सब समझाया ।। देकर सुविधा सभी तरह की, धर्म मार्ग में लगा दिया । भेद भाव रक्खा न रंच भी, श्रेष्ठ स्वधर्मी बना दिया । एक दिवस सानन्द सुभग, वन में जब गाय चराता था । बहती सरिता पास एक थी, सुन्दर दृश्य सुहाता था ।। स्नान कार्य के हेतु, वृक्ष पर, चढ़ कूदा सरिता जल में । जलाच्छन्न था तीक्ष्ण ठूठ, वह लगा सुभग-उदरस्थल में ।। शुभ भावों से मरा और, जिनदास सेठ के जन्म लिया । पूर्व जन्म के स्वामी को ही, जनक - रूप में प्राप्त किया । श्रेष्ठिवर्य तुम वही सुभग हो, - क्या से क्या ऐश्वर्य मिला । ग्वाल बाल से बने श्रेष्ठिवर, पूर्णतया सुख - पुष्प खिला ॥ पूर्वजन्म की संस्कृति का, इस भव में विस्तार हुआ । १४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001218
Book TitleDharmavir Sudarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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