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आदर्श क्षमा
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अज्ञानी है, भ्रम भूला है,
दयापात्र है अतः सदा । ज्ञानी जन भ्रम-भूलों पर यों,
क्रोध - भाव लाते न कदा ॥ और अगर अपराधी है,
तो भी मेरा अपना है। आप दंड दें, यह तो बिल्कुल,
व्यर्थ पंच खुद बनना है ॥"
उपकारी पर उपकारी तो,
सारा ही जग बनता है। किन्तु सुदर्शन अपकारी पर,
भी उपकारी बनता है ॥" तदनन्तर राजा को संबोधन,
कर प्रेम - सुधा घोली । बाह्य भाव से नहीं, हृदय की,
विमल भावनाएँ खोली ।।
“पूर्ण प्रेम के साथ क्षमा है,
द्वेष न कुछ भी लाऊँगा । राजन् ! बन्धुभाव से वह,
पहले - सा स्नेह निभाऊँगा ।
दोष आपका नहीं लेश है,
यह सब निज कर्मों की लीला । कर्म-दोष से पड़ जाता है,
काला शुद्ध स्वर्ण पीला ॥
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