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सर्ग तेरह
अङ्गराष्ट्र का उत्थान
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पापी अपने पाप से, हो जाते खुद नष्ट; छल-बल-पूरित शेमुषी, बनती बिल्कुल भ्रष्ट । अभया का सुनिए उधर, हुआ बुरा क्या हाल; मृत्यु जाल में फँस गई, भूल गई सब चाल ।
धूर्त-शिरोमणि रंभा दासी,
पहुँची थी शूली-स्थल पर । अभया ने सब बात देखने,
भेजी थी दिल में डर कर ।। शूली से जब स्वर्णासन बदला,
तो कंपित गात हुआ। राजा पहुँचा तो सब कुछ ही,
होश - हवास समाप्त हुआ । आँख बचा कर भगी शीघ्र,
गति से नृप - मंदिर में आई । आँसू बरस रहे नयनों से,
अभया से यों बतलाई । “सर्वनाश हो गया स्वामिनी !
बैठी हो क्या हर्षान्वित ।
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