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अङ्गराष्ट्र का उत्थान
रानी की यह विकट दशा लख,
रंभा अति ही घबराई । माया-जाल गूंथने वाली,
तीक्ष्ण बुद्धि बस चकराई ॥
और मार्ग कुछ नहीं समझ में,
आया, छिप कर भाग गई । सदा काल के लिए मोह चंपा,
चंपा नगरी का त्याग गई ॥
पापी-संग सहायक भी,
हर्गिज न अछूता रहता है । लौह-संग में अग्नि-देव भी,
ताड़न तर्जन सहता है।
जाते हैं।
होते हैं जो मार्ग-भ्रष्ट,
वे नित गिरते ही ठोकर पर ठोकर खाकर भी,
नहीं सँभलने
पाते हैं ।
गिरते
हैं।
एक गर्त से निकल दूसरे,
अन्धगर्त में जीवन भ्रष्ट बनाने का पथ,
अन्य मलिन
ही
गहते हैं ।
धक्के खाती रंभा पहुँची,
नगर पाटली - पुत्रक में । पास रही हरिणी वेश्या के,
लगी उसी फिर लपझप में ॥
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