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धर्म-वीर सुदर्शन
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राजन् निमित्त मात्र ही तुम हो,
जो कुछ है सो मेरा है । रोते क्यों हो, गया निशातम,
आया स्वर्ण - सवेरा है ॥
धन्य धन्य के घोष से, गूंजा सभी प्रदेश; भक्तिमग्न जन-वृन्द में, था अति हविश । राजा ने विनयावनत, होकर की अरदास; 'पुर में शीघ्र पधारिए, हरिए शोकायास ।'
बोले सेठ “मुझे पुर में,
जाने से कुछ. इन्कार नहीं । जननी जन्मभूमि से बढ़ कर,
अन्य जगत में सार नहीं । किन्तु, आपको पहिले मेरा,
एक कार्य करना होगा। अभयदान देकर रानी का,
मरण - त्रास हरना होगा । मेरे कारण से कोई भी,
यदि प्राणी पीड़ा पाए । देख न सकता हूँ, उसमें भी,
यदि अबला मारी जाए ॥" राजा ने कर जोड़ सेठ से,
कहा “आप क्या करते हैं ? कौन शिष्ट, आचार-भ्रष्ट,
कुलटा की रक्षा करते हैं ?
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