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________________ धर्म-वीर सुदर्शन %3 राजन् निमित्त मात्र ही तुम हो, जो कुछ है सो मेरा है । रोते क्यों हो, गया निशातम, आया स्वर्ण - सवेरा है ॥ धन्य धन्य के घोष से, गूंजा सभी प्रदेश; भक्तिमग्न जन-वृन्द में, था अति हविश । राजा ने विनयावनत, होकर की अरदास; 'पुर में शीघ्र पधारिए, हरिए शोकायास ।' बोले सेठ “मुझे पुर में, जाने से कुछ. इन्कार नहीं । जननी जन्मभूमि से बढ़ कर, अन्य जगत में सार नहीं । किन्तु, आपको पहिले मेरा, एक कार्य करना होगा। अभयदान देकर रानी का, मरण - त्रास हरना होगा । मेरे कारण से कोई भी, यदि प्राणी पीड़ा पाए । देख न सकता हूँ, उसमें भी, यदि अबला मारी जाए ॥" राजा ने कर जोड़ सेठ से, कहा “आप क्या करते हैं ? कौन शिष्ट, आचार-भ्रष्ट, कुलटा की रक्षा करते हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001218
Book TitleDharmavir Sudarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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