________________
आदर्श क्षमा
Anca
'मैं मालिक हूँ, यह गुलाम है',
दृष्टि न हर्गिज रखता है । मानवता के दृष्टिकोण से,
अन्तर - भाव परखता है। सेवक भी स्नेहार्द्र-वंश में,
एकमेक - हो जाता निज स्वामी के सुख-दुख में,.
सुख - दुख की धार बहाता है ।। अस्तु, सेठ का दास शीघ्र ही.
श्रेष्ठी - गृह दौड़ा आया । जो कुछ बीता हाल साफ,
सब सेठानी को बतलाया ॥ विश्वासी नौकर से जब यह,
सुना हाल, तो हर्ष अपार । रोम-रोम में बही प्रेम की गंगा,
जिसका वार न पार ।। ध्यान खोल कर एक-एक कर,
ज्ञात करी बातें सारी । द्वार-देश पर जय घोषों की,
गूंजी वाणी तब . प्यारी ॥ स्वर्ण-थाल में शीघ्रतया शुभ,
मंगल द्रव्य सजाया है । बाहर आकर प्राणनाथ का,
स्वागत साज रचाया है । स्वर्णासन पर गजारूढ़ जब,
__ पति के दर्शन किए पुनीत ।
१२०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org