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आदर्श क्षमा
जयघोषों के बीच सेठजी,
गज पर से नीचे उतरे । मिले परस्पर दम्पति सोत्सुक,
हृदय हर्ष से अति उभरे ॥ कैसा था आनन्द, स्नेह का दृश्य,
कलम क्या लिख सकती ? स्नेह-सिन्धु की माप विश्व में,
शक्ति न कोई कर सकती ।।
देख प्रेम पति-पत्नी का,
सब लोग अमित अचरज पाए । हो गृहस्थ, तो ऐसा हो,
वर्ना क्यों जग में ललचाए ।
दो तन हैं पर एक प्राण है,
. कैसा प्रेम बरसता है। स्वर्गलोक सा सौम्य सदन है,
नित-नव मधुर सरसता है ।
स्वर्गलोक भी क्या कर सकता,
श्रेष्ठी के गृह की समता । पुण्यक्षय वाँ होता है,
याँ संचय की नित तत्परता ॥
मुक्त-कंठ से कीर्ति-गान,
नर नारी समुदित करते थे। बीच-बीच में जयकारों से,
गगन विगुंजित करते थे ॥
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