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________________ आदर्श क्षमा जयघोषों के बीच सेठजी, गज पर से नीचे उतरे । मिले परस्पर दम्पति सोत्सुक, हृदय हर्ष से अति उभरे ॥ कैसा था आनन्द, स्नेह का दृश्य, कलम क्या लिख सकती ? स्नेह-सिन्धु की माप विश्व में, शक्ति न कोई कर सकती ।। देख प्रेम पति-पत्नी का, सब लोग अमित अचरज पाए । हो गृहस्थ, तो ऐसा हो, वर्ना क्यों जग में ललचाए । दो तन हैं पर एक प्राण है, . कैसा प्रेम बरसता है। स्वर्गलोक सा सौम्य सदन है, नित-नव मधुर सरसता है । स्वर्गलोक भी क्या कर सकता, श्रेष्ठी के गृह की समता । पुण्यक्षय वाँ होता है, याँ संचय की नित तत्परता ॥ मुक्त-कंठ से कीर्ति-गान, नर नारी समुदित करते थे। बीच-बीच में जयकारों से, गगन विगुंजित करते थे ॥ . - - - १२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001218
Book TitleDharmavir Sudarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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