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धर्म-वीर सुदर्शन श्रेष्ठि-भवन के प्रांगण में,
जन-सिन्धु उमड़ता था भारी । राजाज्ञा से बैठ गए सब,
लगी सभा अति ही प्यारी ॥
स्वर्णासन पर गए बिठाए,
दोनों दम्पति सुखकारी । शोभा कुछ भी कही न जाए,
शोभा थी अति ही न्यारी ॥
राजा और प्रजा का आग्रह,
श्रेष्ठी ने स्वीकार किया । सदाचार पर दृढ़ होने का,
ओजस्वी वक्तव्य दिया ॥
तदनन्तर दधिवाहन राजा,
और प्रजा ने गुण गाए । अन्तर के सब कलिमल धोकर,
शुद्ध भाव सब ने पाए ॥
तदनु गृहागत जनता का,
स्नेह उचित सत्कार हुआ । बिदा हुए सब लोग सेठ का,
घर - घर जय - जयकार हुआ ।
पाठक ! धर्मवीर नर जग में,
यों जय-जय- श्री पाते हैं। अपने आप विरोधी के,
छल - छन्द नष्ट हो जाते हैं ।
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