________________
शली से सिंहासन
पाया भेद तेरा कि बेड़ा पार है, अक्षय अतुल सुखों का तू भंडार है; तेरे भक्तों का नित्य ही जयकार है, होती अणु भी कहीं भी नहीं हार है।
अहम्, अर्हम्, अर्हम्, अहम् ! भगवन् ! भक्त-हृदय की यह है भावना, सब जन सुख से करें नित्य धर्म-साधना, पापाचरणों की दिल में न हो कामना, सारा जगत सुखी हो, न हो यातना ।
अहम्, अहम्, अहम, अहम् ! दया-मूर्ति ! मैं दर पै तुम्हारे खड़ा, भव-व्याधि के व्रण से हृदय है सड़ा; सभी भाँति विमूर्च्छित मुमूर्षु पड़ा, कीजे करुणा, समय है अतीव कड़ा!
अर्हम्, अहम्, अर्हम्, अहम् !
मन्त्र-मुग्ध थी सारी जनता,
- भक्ति - घटा घहराई थी। पाप-ताप-मूर्च्छित हृदयों में,
शान्ति - सुधा लहराई थी ॥ सागारी संथारा करके किया,
पाप का ताप शमन । द्वेष भाव रक्खा न किसी पर,
उमड़ा मैत्री का शुभ घन ॥ जय-जय ध्वनि के साथ सेठ,
शूली पर चढ़ते जाते थे । मंत्र-राज नवकार उच्चतम,
ध्वनि से पढ़ते जाते थे ।
3
-
१०८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org