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सर्ग ग्यारह
शूली से सिंहासन
सत्ता के अभिमान का होता जब अतिरेक हो जाते हैं नष्ट सब बुद्धि, विचार, विवेक । राजा के मस्तिष्क में गूंज रहा है गर्व पर होता है क्या, पढ़ें आगे चल कर सर्व । राजा तो क्या ईश भी, अगर रुष्ट हो जाय; धर्मवीर नर पर नहीं, कुछ भी पार बसाय ।
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पौर जनों को धमकाकर,
नरपाल सेठ की ओर हुआ । आँखें अन्धी बनी क्रोध से,
गर्व-ज्वर का जोर हुआ ॥ कहा सेठ से "मरने को अब,
हो जाओ जल्दी तैयार । मैं क्या मरवाता हूँ तुझको,
मरवाता तव पापाचार ।। हाँ, परन्तु इक राज-धर्म है,
वह भी तो करना होगा । प्राण-दण्ड के अपराधी का,
मनोऽभीष्ट करना होगा ॥
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