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धर्म-वीर सदर्शन
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निरपराध हैं बधिक सिपाही,
करते हो क्यों उत्पीड़ित ? स्वार्थ-विवश हैं, निंद्य,
पेट के लिए, सभी कुछ करते हैं । अन्तर में सब समझ रहे हैं,
किन्तु भूप से डरते हैं । आज्ञा-पालन ही, सेवक का,
धर्म शास्त्र है बतलाते । क्रोधभाव अतएव श्रेष्ठ जन,
कभी न सेवक पर लाते ।। पूर्ण शान्ति रक्खो, न कभी भी,
नाम मारने का लेना । बन्धु-रक्त से रंजित कर निज,
हस्त न मलिन बना लेना ॥ राजा क्या शूली देता है ?
यह सब कलिमल अपना है । स्वयं हेतु हूँ निज सुख दुख का,
व्यर्थ अन्य का सपना है ॥ मेरा अपराधी इस जगती,
तल पर कोई नहीं कहीं । प्रतिहिंसा का मेरे अन्तस्तल,
में अणु भी भाव नहीं ॥ राजा भ्रम भूला है, कुछ भी,
नहीं सत्य का पता उसे । दया करें भगवान, नहीं हो,
कष्ट-प्रद यह खता उसे ॥
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