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धर्म-वीर सुदर्शन
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बदले का संकल्प न रक्खो,
दुख न किसी को पहुँचाओ ॥" अपने प्रिय श्रेष्ठी की वाणी,
सुनकर जनता शांत हुई । 'धन्य अलौकिक शांति क्षमा' के,
रव की नभ में गूंज हुई ॥ सत्पुरुषों के विमल हृदय की,
जग में कहीं न समता है । प्राण शत्रु पर भी करुणा,
रखने की कैसी क्षमता है ॥ जल्लादों ने हाँका गर्दभ,
चली सवारी आगे को । छोड़ चले हा हंत सेठजी,
अपने नगर अभागे को । जग-भक्षक श्मशान-भूमि में,
घटा शोक की छाई है । चारों ओर मृत्यु की छाया,
कण - कण मध्य समाई है ॥ प्राणनाशिनी लोह-निर्मिता,
शूली झल - झल करती है । सेठ पास में आए तो,
जनता अति कल-कल करती है ॥ देख प्रजा-वैकल्य सेठ जी,
मन्द हास्य हँस कर बोले । वाम-हस्त से पकड़ा शूली-दंड,
अभय हत्पट खोले ॥
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