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शूली से सिंहासन
उठो गर्ज कर, बनो न दब्बू,
सत्ता का गढ़
जनता की भी कुछ ताकत है,
दहलादो ।
मत्त भूप को दिखलादो ॥
जीवन का क्या मोह न्याय पर, हँसते
हँ
-
अमर शहीदों में स्वर्णाक्षर से, निज नाम
ओजस्वी वक्तव्य सुना तो,
जनता में विप्लव की भीषण, आग सर्वतः
" पकड़ो, मारो इन दुष्टों की, हड्डी ड्ड श्रेष्ठी को लो छुड़ा अभी,
बिजली नस नस दौड़ गई ।
फैल गई ॥
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चूर्ण
करो ।
जो करना है वह तूर्ण करो ॥"
युवकों का दल गर्जन करता, सैनिक दल की
रोम-रोम में बड़े वेग से,
सेठ सुदर्शन ने देखा जो,
रक्त-पात
लिखा जाओ ।"
मर जाओ ।
बोले शान्ति - स्थापनाकारी,
प्रतिहिंसा का नशा
का विकट समय ।
"ठहरो ठहरो, क्या करते हो ? होते
ओर बढ़ा ।
चढ़ा ||
वाणी स्नेह सुधारस
१०२
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हो क्यों उत्तेजित ?
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मय ॥
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