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धर्म-वीर सुदर्शन
खुश रहो प्रिय बन्धुओ ! मैं तो सफर करता हूँ आज; शीश अपना सत्य भगवन् की नजर करता हूँ आज ! आप लोगों का शुरू से क्रीत दास बना रहा;
याद रखना, प्रार्थना यह स्नेह धर करता हूँ आज ! गलतियाँ जो भी हुई हों, कीजिए कण-कण क्षमा;
भूत की भूलें सभी कुछ, दर गुजर करता हूँ आज ! प्रेम से रहना, न करना भूल कर झगड़ा फिसाद;
प्रेम सुख का मूल है, सन्देश - वर करता हूँ आज ! देह क्षणभंगुर न जाने छूट जाए कब कहाँ,
धर्म-हित मर कर स्वयं को मैं अमर करता हूँ आज !
अन्तिम कड़ियाँ सुनते-सुनते,
बहा
हाहाकार मचा चहुँ दिश में, गूँजा रोदन से
स्नेह का सिन्धु अतल ।
देख सेठ की विकट दुर्दशा, सिसक-सिसक
आँखों से अविराम अश्रु,
बोले “ ठहरो सेठ हमें तुम,
थे ।
निर्झर परिवाहित होते थे ॥
सदा काल को हमें सर्वथा,
क्यों असहाय
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कहाँ प्रेम से सुखद,
पाएँगे जब कष्ट, भला फिर,
किसे
गुहार
नभ
कहाँ छोड़ कर जाते हो ?
बनाते हो ?
सान्त्वनामय
€
-
सब रोते
तल ॥
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सुनाएँगे ?
सहायता पाएँगे ?
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