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धर्म-वीर सुदर्शन
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प्रेम मग्न हो लगी प्रार्थना, करने भक्ति - समुद्र
'अर्हन्- अर्हन्' साँसों का,
स्वर मन्द
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दासी का नाथ उद्धार करो,
जगदीश प्रभो, जगदीश प्रभो ! मैं निराधार, साधार करो,
जगदीश प्रभो, जगदीश प्रभो !
मन्द झनकार रहा ||
आफत की बिजली कड़की है,
छाती धड़धड़ कर धड़की है दृढ़ साहस का विस्तार करो,
जगदीश प्रभो, जगदीश प्रभो ! बस मूर्च्छित-सा मृत-सा तन है,
निस्तेज हुआ निस्पन्दन है; नव जीवन का संचार करो,
जगदीश प्रभो, जगदीश प्रभो ! मुझ निर्बल के बल तुम ही हो,
मुझ निर्धन के धन तुम ही हो; मुझ अबला का उद्धार करो;
जगदीश प्रभो, जगदीश प्रभो !
हे नाथ भँवर में नैय्या है,
तुम बिन अब कौन खिया है;
देरी न करो झट पार करो,
जगदीश प्रभो, जगदीश प्रभो !
क्षण-क्षण में दबती जाती हूँ, अणु
भी न उभरने पाती हूँ,
पापों का हल्का भार करो,
जगदीश प्रभो जगदीश प्रभो !
बहा ।
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