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पौरजनों का प्रेम
धर्म-परायण सेठ आपका,
कैसे सत् खो सकता है ?
राजहंस से कैसे वायस -
कार्य नीच हो सकता है ?
त्राहि-त्राहि मच रही नगर में, अति ही भीषण
क्या बाजारों गलियों में, सर्वत्र यही
घर का घर बर्बाद हुआ,
सेठानी ने संथारे की,
क्या तुम्हें और कुछ खबर नहीं ?
गही ॥
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घोर प्रतिज्ञा
दया - पात्र हैं दीन पुत्र,
एकमात्र अवलम्ब सेठ के, जीवन की
कलकल है ।
इक हलचल है ॥
कुछ उन पर तो करुणा कीजे ।
भिक्षा दीजे ॥"
अटल
राजा उद्धतता से बोला,
"अरे मूर्ख क्या कहते हो ? न्याय - मार्ग का तुम्हें पता क्या,
निज धंधों में रहते हो ॥
अत्याचारी पतिताचारी.
सेठ दंड के काबिल है । धर्मी क्या, शैतान बड़ा है, धूर्तराज
है, जाहिल है ॥"
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