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________________ पौरजनों का प्रेम धर्म-परायण सेठ आपका, कैसे सत् खो सकता है ? राजहंस से कैसे वायस - कार्य नीच हो सकता है ? त्राहि-त्राहि मच रही नगर में, अति ही भीषण क्या बाजारों गलियों में, सर्वत्र यही घर का घर बर्बाद हुआ, सेठानी ने संथारे की, क्या तुम्हें और कुछ खबर नहीं ? गही ॥ Jain Education International घोर प्रतिज्ञा दया - पात्र हैं दीन पुत्र, एकमात्र अवलम्ब सेठ के, जीवन की कलकल है । इक हलचल है ॥ कुछ उन पर तो करुणा कीजे । भिक्षा दीजे ॥" अटल राजा उद्धतता से बोला, "अरे मूर्ख क्या कहते हो ? न्याय - मार्ग का तुम्हें पता क्या, निज धंधों में रहते हो ॥ अत्याचारी पतिताचारी. सेठ दंड के काबिल है । धर्मी क्या, शैतान बड़ा है, धूर्तराज है, जाहिल है ॥" ६२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001218
Book TitleDharmavir Sudarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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