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________________ धर्म-वीर सुदर्शन - प्रेम मग्न हो लगी प्रार्थना, करने भक्ति - समुद्र 'अर्हन्- अर्हन्' साँसों का, स्वर मन्द Jain Education International दासी का नाथ उद्धार करो, जगदीश प्रभो, जगदीश प्रभो ! मैं निराधार, साधार करो, जगदीश प्रभो, जगदीश प्रभो ! मन्द झनकार रहा || आफत की बिजली कड़की है, छाती धड़धड़ कर धड़की है दृढ़ साहस का विस्तार करो, जगदीश प्रभो, जगदीश प्रभो ! बस मूर्च्छित-सा मृत-सा तन है, निस्तेज हुआ निस्पन्दन है; नव जीवन का संचार करो, जगदीश प्रभो, जगदीश प्रभो ! मुझ निर्बल के बल तुम ही हो, मुझ निर्धन के धन तुम ही हो; मुझ अबला का उद्धार करो; जगदीश प्रभो, जगदीश प्रभो ! हे नाथ भँवर में नैय्या है, तुम बिन अब कौन खिया है; देरी न करो झट पार करो, जगदीश प्रभो, जगदीश प्रभो ! क्षण-क्षण में दबती जाती हूँ, अणु भी न उभरने पाती हूँ, पापों का हल्का भार करो, जगदीश प्रभो जगदीश प्रभो ! बहा । ८७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001218
Book TitleDharmavir Sudarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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