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________________ आदर्श पतिव्रता ही रहते । दैववाद के अटल भरोसे, मात्र आलसी रोते-रोते जन्म गँवाते, नित्य नए संकट सहते ॥ कँपाते हैं । किन्तु, वीर निज पैरों पर, हो खड़े जगत चाहे कैसा कठिन कार्य हो, झट आसान बनाते हैं । आत्मा की है प्रबल शक्ति, वह चाहे जो कर सकती है। भाग्य-चक्र में मन चाहा सब, उलट - फेर कर सकती है ॥ रोने से क्या काम बनेगा ? । अतः यत्न करना चाहिए। आध्यात्मिक बल-हेतु प्रभू की, चरण - शरण गहना चाहिए ॥ टालेंगे । दीन-बन्धु ही मुझ दुखिया का, . सारा दुखड़ा प्राणनाथ को मृत्यु-राक्षसी से, बस वही बचा लेंगे ॥" शुद्ध श्वेत परिधान पहन, पद्मासन सुदृढ़ लगाया है । अर्धोन्मीलित नयन बन्द कर, श्रीजिन ध्यान लगाया है ॥ - - ८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001218
Book TitleDharmavir Sudarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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