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________________ धर्म-वीर सुदर्शन रोते-रोते रुकी मनोरमा, ध्यान और कुछ आया है । राजा पर से द्वेष हटा, मन शान्ति-सिन्धु लहराया है ॥ . पगली। "री मनोरमा, तू तो बिल्कुल, बुद्धिमूढ़ निकली स्वार्थ-मोह ने तेरी उज्ज्वल, धर्म-बुद्धि सब ही ठग ली ॥ देती है। राजा का क्या दोष व्यर्थ ही, उसको लांछन मात्र निमित्त बना है वह तो, लक्ष्य न जड़ पर. देती है ॥ कौन किसी को दुःख देता है, सब निज करनी का फल है। जो कुछ बाँधा कर्म शुभाशुभ, होता तनिक न निष्फल है ॥ मानव तो क्या चीज इन्द्र तक, इससे छूट न सकते हैं। कर्मों के आगे तो प्रभु, अरिहंत तलक झुक सकते हैं । पुरुषार्थ । और कर्म ! हाँ, वह भी तो है, पूर्वजन्म का ही तोड़ा जा सकता है, यदि हो, यहाँ . प्रतिरोधी पुरुषार्थ ॥ ८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001218
Book TitleDharmavir Sudarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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