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धर्म-वीर सुदर्शन रोते-रोते रुकी मनोरमा,
ध्यान और कुछ आया है । राजा पर से द्वेष हटा,
मन शान्ति-सिन्धु लहराया है ॥
.
पगली।
"री मनोरमा, तू तो बिल्कुल,
बुद्धिमूढ़ निकली स्वार्थ-मोह ने तेरी उज्ज्वल,
धर्म-बुद्धि सब ही
ठग
ली
॥
देती
है।
राजा का क्या दोष व्यर्थ ही,
उसको लांछन मात्र निमित्त बना है वह तो,
लक्ष्य न जड़
पर. देती है ॥
कौन किसी को दुःख देता है,
सब निज करनी का फल है। जो कुछ बाँधा कर्म शुभाशुभ,
होता तनिक न निष्फल है ॥
मानव तो क्या चीज इन्द्र तक,
इससे छूट न सकते हैं। कर्मों के आगे तो प्रभु,
अरिहंत तलक झुक सकते हैं ।
पुरुषार्थ ।
और कर्म ! हाँ, वह भी तो है,
पूर्वजन्म का ही तोड़ा जा सकता है, यदि हो,
यहाँ . प्रतिरोधी
पुरुषार्थ ॥
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