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आदर्श पतिव्रता
भाग्यवाद का चक्र शीघ्र ही,
फिरा रंग में भंग हुआ । शूली की जो खबर लगी तो,
सभी रंग बदरंग हुआ ॥
हा हाकार मचा घर-भर में,
आँसू का परिवाह बहा । नौकर-चाकर परिजन सब में,
नहीं शोक का पार रहा ॥
सब से बढ़कर श्री मनोरमा,
दुःखघात से विह्वल थी। चित्तवृत्ति अति व्यग्र हुई थी,
नहीं जरासी भी कल थी।
हंत ! सलिल-निःसृत मछली के,
तुल्य अतीव तड़पती थी । मूर्छित होकर बार-बार,
बेहोश भूमि पर पड़ती थी ।
है
।
"प्राणनाथ ! यह क्या सुनती हूँ,
छाती मेरी फटती रोम-रोम में दुःख-वेदना,
प्रतिपल सर-सर बढ़ती
है ॥
जाएगी ।
शूली पर वह पुष्प-लता सी,
देह चढ़ाई हाय, तुम्हारी चरण सेविका,
फिर कैसे रह
पाएगी ॥
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