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३.४.
शब्दों के साथ न देकर इनका पृथक् संग्रहण किया है । इन धातुओं को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है
१. देशी धातुएं ।
२. आदेश प्राप्त धातुएं ।
प्रथम कोटि की धातुओं में कहीं-कहीं व्याख्याकारों ने यह देशी वचन है, यह देशी पद है - ऐसा स्पष्ट निर्देश किया है । जैसे
आदेश प्राप्त धातुओं को कुछ विद्वानों ने तद्भव के रूप में स्वीकार किया है । हेमचन्द्राचार्य ने पूर्वाचार्यों की देशी अवधारणा को उल्लिखित कर इन्हें धात्वादेश प्रकरण में समाविष्ट किया है । वे लिखते हैं- एते चान्यैर्दशीषु पठिता अपि अस्माभिर्धात्वादेशीकृताः' - हमारे पूर्ववर्ती देशीकारों ने इन धातुओं को देशीधातुओं के रूप में संगृहीत किया है, पर हमने इन्हें आदेश प्राप्त धातुओं के रूप में ग्रहण किया है ।
किंतु आचार्य हेमचन्द्र देशीनाममाला में स्थान-स्थान पर संकेत करते हैं कि अमुक धातु हमने धात्वादेश में बता दी है, इसलिए यहां उसका कथन नहीं किया है । जैसे-
खलाहि देशीपदम पसरेत्यस्यार्थे । जूहति त्ति देशीशब्दत्वाद् आनयन्ति । णिण्णाइंति देशीपदत्वादधोगच्छति । फुराविति त्ति देशीपदमेतद् अपहारयन्ति । रूसेह त्ति देशीवच नत्वाद् गवेषयत । वाडुइत्ति देशीवचनमेतत् नश्यतीत्यर्थः । विष्फालेइ देशीवचनमेतत् पृच्छतीत्यर्थः ।
अइच्छइ, अक्कुस - गच्छति । अवक्खइ-पश्यति । अप्पाहइ- संदिशति । अल्लत्थइ - उत्क्षिपति । एते धात्वादेशेषु शब्दानुशासने अस्माभिरुक्ता इति नेहोपात्ता: । ( १।३७ वृ)
उद्घुमाइ - पूर्यते इत्यादयो धात्वादेशेष्वस्माभिरुक्ता इति ( १।११७ वृ)
( ३।१८ वृ) (३|१६ वृ)
चुलुचुलइ --- स्पन्दते इति धात्वादेशेधूक्तमिति नोक्तम् । चोप्पss - प्रक्षति इति धात्वादेशेषुक्तमिति । जूरइ खिद्यते क्रुध्यति च इति धात्वादेशेषूक्तमिति नोक्तम् । feofrees मण्डयति, टिरिटिल्लइ भ्राम्यति धात्वादेशेषूक्ताविति नोक्तौ ।
( ३५२ वृ )
उप्फालइ - कथयति नोच्यन्ते ।
( ४१३ वृ)
इन निर्देशों से यह सम्भावना की जा सकती है कि हेमशब्दानुशासन के १. प्राकृत व्याकरण ४।२ टीका ।
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