________________ दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् प्रथम दशा में अग्नि सिद्ध करता है तो निश्चित है कि उसने अनुमान प्रमाण से ही उसकी सिद्धि की / जो अग्नि के पास बैठे हैं उनको तो अग्नि प्रत्यक्ष ही है / इसी प्रकार सर्वज्ञ के विषय में भी जानना चाहिए / जैसे-जो पदार्थ 'मतिज्ञान', 'श्रुतज्ञान', 'अवधिज्ञान' और 'मनःपर्यवज्ञान' के विषय में न आ सके तो यह अवश्य मानना पड़ेगा कि इसके अतिरिक्त भी कोई विशिष्ट-ज्ञान है, जो उक्त पदार्थ को प्रत्यक्ष करता है / उस ज्ञान को जानने वाला ही सर्वज्ञ या सर्वदर्शी कहलाता है / जिस प्रकार हमने देश-विप्रकृष्ट (दूर) का ज्ञान अनुमान प्रमाण से किया, ठीक उसी प्रकार काल-विप्रकृष्ट के विषय में भी जानना चाहिए / जैसे रामचन्द्रादिक यदि हम से विप्रकृष्ट (दूर, भूतकाल में). हैं, तो अपने समकालीनों में वह प्रत्यक्ष भी थे / इसी प्रकार सर्वज्ञों के विषय में भी जानना चाहिये / ऊपर की हुई विवेचना से सर्वज्ञ-सिद्धि भली भाँति हो गई / सर्वज्ञों के रचित वाक्यों को ही आप्त-वाक्य या शास्त्र कहते हैं / सूत्र में 'आयुष्मन शिष्य !' यह आमन्त्रण सिद्ध करता है कि सब कार्यों में जीवन ही प्रधान है / केवल दीर्घजीवी व्यक्ति ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है / तथा 'हे आयुष्मन् शिष्य !' यह आमन्त्रण कोमल होने के कारण शिष्य के हृदय में प्रसन्नता उत्पन्न करता है। आयु सब को प्रिय है / लोक में भी आयुवृद्धि का ही आशीर्वाद देने की प्रथा प्रचलित है। इससे यह सिद्ध हुआ कि सूत्र में 'आयुष्मन्' आमन्त्रण अत्युत्तम तथा युक्तिसंगत है / ___ जब जीवन सबको प्रिय है तो यह प्रश्न उपस्थित होता है कि जीवन कितने प्रकार का होता है / उत्तर में कहा जाता है कि जीवन-नाम, स्थापना, द्रव्य, ओघ, भव, तदभव, भोग, संयम, यश और कीर्ति-भेदों से दश प्रकार का होता है / जैसे 1 नाम-जीवन-सजीव या निर्जीव पदार्थों का जीवन-नाम रखना / 2 स्थापना-जीवन-उन पदार्थों की स्वरूपस्थापना / 3 द्रव्य-जीवन-जीवितव्य (जीने की योग्यता) का कारण 'द्रव्य-जीवन' कहलाता 4 ओघ-जीवन-नारकी आदि का अविशेष (सामान्य) आयुरूप, द्रव्यमात्र सामान्य जीवन 'ओघ-जीवन' होता है / 5 भव-जीवन-नारकादि भव विशिष्ट रूप / -