________________ है 12. दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् प्रथम दशा समान कथन करने की योग्यता रखता है; इसलिए उक्त कथन युक्ति-संगत सिद्ध होता इस सूत्र में यह तो स्पष्ट कर ही दिया है कि 'भाव-असमाधि' के अनेक कारण होने पर भी मुख्य बीस ही कारण हैं / इनके अतिरक्त अन्य सब कारण इन्हीं के अन्तर्गत हो जाते हैं / 'इह खलु' इत्यादि सूत्र की वृत्ति में वृत्तिकार स्वयं लिखते हैं : "इह अस्मिन् लोके निर्ग्रन्थ-प्रवचने वा, खलु वाक्यालङ्कारे अवधारणे वा, तथा च इहैव न शाक्यादिप्रवचनेषु, अथवा खलुशब्दो विशेषणे च, स. च अतीतानागतानां स्थविराणामेव प्रज्ञापनायेति / " ___अर्थात्-इह' का अर्थ हुआ इस लोक में अथवा निर्ग्रन्थप्रवचन में / 'खलु यहां वाक्यालङ्कार व अवधारण (निश्चय) के लिए दिया गया है / अथवा खलु शब्द से तीन काल के स्थविर भगवान् इस प्रकार प्रतिपादन करते हैं यह अर्थ जानना चाहिए / ___ "ठाणा” “ठाणाणि” (स्थानानि) शब्द नपुंसक-लिङ्ग होते हुए भी प्राकृत होने से दोषाधायक नहीं है / अब सूत्रकार असमाधि के बीस भेदों का विस्तारपूर्वक नामाख्यान करते हैं: दव-दव-चारि यावि भवइ / / 1 / / अपमज्जिय-चारि यावि भवइ / / 2 / / दुपमज्जिय-चारि आवि भवइ / / 3 / / द्रुत-द्रुत-चारी चापि भवति / / 1 / / अप्रमार्जित-चारी चापि भवति / / 2 / / दुष्प्रमार्जित-चारी चापि भवति / / 3 / / पदार्थान्वयः-दव-दव-चारि-अति शीघ्र चलने वाला जो, भवइ-होता है, य–'च' शब्द से अन्य क्रियाओं के विषय में भी जानना चाहिए, अवि-'अपि' शब्द से उत्तर असमाधि की अपेक्षा समुच्चय अर्थ जानना चाहिए / पुनः जो, अपमज्जियचारि भवइ-अप्रमार्जितचारी है / 'च' और 'अपि' शब्द पूर्ववत् जानने चाहिए / दुपमज्जिय-चारि भवइ-जो दुष्प्रमार्जितचारी है, 'च' शब्द से अन्य क्रियाओं के विषय में भी जानना / चाहिए | और 'अपि' शब्द से उत्तरोत्तर असमाधियों का भी बोध होता है | .