________________ - - है चतुर्थी दशा हिन्दीभाषाटीकासहितम् / 113 पदार्थान्वयः-आयरिओ-आचार्य अंतेवासी-अपने शिष्यों को इमाए-इस चउबिहाए-चार प्रकार की विणय-पडिवत्तीए-विनय-प्रतिपत्ति से विणइत्ता-शिक्षा देने वाला भवइ-होता है तो वह निरणतं गच्छइ-उऋण हो जाता है। तं जहा-जैसे आयार-विणएणं-आचार-विनय से सुय-विणएणं-श्रुत-विनय से विक्खेवणा-विणएणं-विक्षेपणा-विनय से दोस-निग्घायणा-विणएणं-दोष-निर्घात-विनय से सिखाने वाला हो / __मूलार्थ-आचार्य अपने शिष्यों को आचार, श्रुत, विक्षेपणा और दोषनिर्घात-चार प्रकार की विनय-प्रतिपत्ति सिखाने से उऋण हो जाता है / टीका-इस सूत्र में प्रतिपादन किया गया है कि आचार्य का अपने शिष्यों के प्रति क्या कर्त्तव्य है / जिस प्रकार शिष्यों का आचार्य के प्रति विनय-पालन कर्त्तव्य है, उसी प्रकार आचार्य का भी उनके प्रति कोई कर्त्तव्य अवश्य होना चाहिए / इसी बात को स्फुट करते हुए बताया गया है कि यदि गणी शिष्यों को चार प्रकार की विनय-प्रतिपत्ति से शिक्षित करे तो वह उनसे उऋण हो जाता है / इससे यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि जो गणी अपने शिष्यों को चार प्रकार की विनय-प्रतिपत्ति से शिक्षित नहीं करता वह उनका ऋणी रहता है / और ऋणी व्यक्ति लौकिक व्यवहार के समान लोकोत्तर व्यवहार में भी निन्दा का पात्र होता है / अतः गणी का मुख्य कर्तव्य है कि अपने शिष्यों को आचार, श्रुत, विक्षेपणा और दोष-निर्घात विनय की शिक्षा प्रदान कर उनसे उऋण हो जाये | गणी ही शिष्यों को आचार्य-पद के योग्य बना सकता है, अतः वह अपने कर्तव्य का ध्यान रखते हुए हर एक प्रकार शिक्षा देकर उनको उसके योग्य बनावे / इसका प्रभाव दोनों लोकों में सुख-प्रद होता है। अब सूत्रकार आचार-विनय का विषय वर्णन करते हैं- से किं तं आयार-विणए ? आयार-विणए चउबिहे पण्णत्ते, तं जहा-संजम-सामायारी यावि भवइ, तव-सामायारी यावि भवइ, गण-सामायारी यावि भवइ, एकल्ल-विहार-सामायारी यावि भवइ / से तं आयार-विणए / / 1 / /