________________ PoU0 000 w ww. and SER ह पंचमी दशा हिन्दीभाषाटीकासहितम् / 156 पदार्थान्वयः-आउसो-हे आयुष्मन् शिष्य ! एवं-इस प्रकार अभिसमागम्म-जानकर चित्तं-(राग और द्वेष से रहित) अन्तःकरण को आदाय-धारण कर सेणि-सुद्धिं-ज्ञान और दर्शन की शुद्ध श्रेणि को उवागम्म-प्राप्त कर आया-आत्मा सुद्धि-शुद्धि उवागई-प्राप्त कर लेता है। त्ति बेमि-इस प्रकार मैं कहता हूं / इति-इस प्रकार पंचमा-पांचवीं दसा-दशा समत्ता-समाप्त हुई / मूलार्थ-हे आयुष्मन् शिष्य ! इस प्रकार (समाधि के भेदों को) जान कर, राग और द्वेष से रहित चित्त को धारण कर और शुद्ध श्रेणि को प्राप्त कर आत्मा शुद्धि को प्राप्त करता है अर्थात् मोक्ष-पद को प्राप्त कर लेता है / टीका-इस सूत्र में प्रस्तुत दशा की समाप्ति की गई है / उपसंहार में शिष्य को आमान्त्रित करते हुए कहा गया है “हे आयुष्मन् शिष्य ! राग और द्वेष से रहित चित्त को धारण करके आत्म-शुद्धि करनी चाहिए, क्योंकि आत्म-शुद्धि के प्रमुख बाधक राग और द्वेष ही हैं / यदि ये दोनों अन्तःकरण से निकल जायंगे तो आत्मा स्वयमेव शुद्ध हो जायगा / इसके अतिरिक्त पूर्वोक्त दश प्रकार के समाधि-स्थानों को भली भांति जानकर और इनके स्वरूप को ज्ञान द्वारा देखकर ज्ञान, दर्शन और चरित्र द्वारा आत्म-शुद्धि करनी चाहिए | 'चित्त' शब्द ज्ञानार्थक भी है, अतः शुद्ध चित्त अर्थात् ज्ञान द्वारा आत्म-शुद्धि करनी चाहिए | . . _ सूत्र में बताया गया है कि शुद्ध श्रेणि प्राप्त कर आत्मा शुद्धि को प्राप्त होता है / श्रेणि दो प्रकार की वर्णन की गई है, द्रव्य-श्रेणि और भाव-श्रेणि / इनमें द्रव्य श्रेणि प्रासादादि के आरोहण के लिए बनी हुई सीढ़ियों की पङ्क्ति के लिए कहते हैं / भाव-श्रेणि पुनः दो प्रकार की होती है, विशुद्ध भाव-श्रेणि और अविशुद्ध भाव-श्रेणि / | अविशुद्ध भाव-श्रेणि के द्वारा आत्मा संसार-चक्र में भ्रमण करता है और विशुद्ध-भाव-श्रेणि से मोक्ष की ओर जाता है / अतः विशुद्ध भाव-श्रेणि ही कर्म-मल को हटाने में समर्थ हो सकती है / सूत्र में भी कहा गया है “अकडेवर सेणि मुसिया इत्यादि / अतः यह सिद्ध हुआ कि शुद्ध श्रेणि ही कर्म-मल को दूर कर सकती है और उससे शुद्ध होकर आत्मा मोक्ष-पद की प्राप्ति करता है /