________________ 348 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् दशमी दशा - प्रसिद्ध चौकों में परिषत् श्री भगवान् के पास गई और धर्म सुनने की इच्छा से विनय-पूर्वक उनकी पर्युपासना करने लगी। टीका-उस काल और उस समय में धर्म के प्रवर्तक, चार तीर्थ स्थापन करने वाले श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी एक गांव से दूसरे गांव में विचरते हुए तथा संयम और तप के द्वारा अपनी आत्मा को अलंकृत करते हुए राजगृह नगर के गुणशैल नामक चैत्य में विराजमान हो गये। तब नगर के त्रिकोण, चतुष्कोण तथा अन्य बहुकोण मार्गों में, भगवान् के आगमन की सूचना मिलने पर, जनता भगवान् के दर्शन करने के लिए तथा उनका उपदेश सुनने के लिए उत्सुकता से एकत्रित हो गई। प्रत्येक व्यक्ति असीम आनन्द का अनुभव करते हुए भगवान् का यशोगान कर रहा था। चारों ओर उन्हीं के दर्शन का माहात्म्य गाया जा रहा था। सारा नगर इसी कोलाहल से परिपूर्ण था। तदनन्तर सारी जनता भक्ति-पूर्वक श्री भगवान् के दर्शन के लिए तथा उनके मुखारविन्द से निकले हुए उपदेशामृत पान करने के लिए गुणशैल चैत्य की ओर चल पड़ी। इस प्रकार श्री भगवान् के चरण-कमलों में उपस्थित होकर भक्ति और प्रेम-पूर्वक उनकी पर्युपासना करने लगी। अब सूत्रकार उक्त विषय से ही सम्बन्ध रखते हुए कहते हैं: तते णं महत्तरगा जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति-रत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वंदति नमसंति वंदित्ता नमंसित्ता नाम-गोयं पुच्छंति नाम-गोयं पुच्छित्ता नाम-गोयं पधारंति पधारित्ता एगओ मिलंति एगओ मिलित्ता एगतमवक्कमित्ता एवं वयासी, जस्स णं देवाणुप्पिया सेणिए राया भंभसारे दंसणं कंक्खति, पीहेति, जस्स णं देवाणुप्पिया सेणिए राया दंसणं पत्थति, जस्स णं देवाणुप्पिया सेणिए राया दंसणं अभिलसति, जस्स णं देवाणुप्पिया सेणिए राया नामगोत्तस्सवि सवणयाए. हहतुढे जाव भवति से णं समणे भगवं महावीरे आदिगरे तित्थयरे