________________ Reme है 374 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् दशमी दशा फलवृत्ति विशेष है तो हम भी दूसरे जन्म में इस प्रकार के श्रेष्ठ मनुष्य सम्बन्धी काम-भोगों को भोगते हुए विचरण करेंगे / यह हमारा चिन्तित विचार साधु अर्थात् श्रेष्ठ है / यही संकल्प उन साधुओं के चित्त में उस समय श्रेणिक राजा को देखकर उत्पन्न इस सूत्र में “भोगभोगाई" आदि नपुंसक लिग में दिये गए हैं / ये सब प्राकृत होने के कारण दोषाधायक नहीं हैं / क्योंकि "व्यत्ययश्च" सूत्र से प्राकृत में व्यत्यय विशेषता से होते हैं / “नैव मया दृष्टाः-अवलोकिता देवलोके-इत्येक-वचनं साध्यवसायिकत्वाद् वक्तुरपेक्षया" इत्यादि / यहाँ शङ्का उत्पन्न हो सकती है कि भगवान् के समवसरण में साधुओं के चित्त में ऐसे संकल्प क्यों उत्पन्न हुए ? समाधान में कहा जाता है कि छद्मस्थता के कारण यदि ऐसा हो भी जाय तो कोई आश्चर्य नहीं / ___ अब सूत्रकार वर्णन करते हैं कि चेल्लणादेवी को देखकर साध्वियों के चित्त में. क्या-क्या विचार उत्पन्न हुए: अहो णं चेल्लणादेवी महिड्ढिया जाव महा-सुक्खा जा णं ण्हाया, कय-बलिकम्मा, जाव कय-कोउय-मंगल-पायच्छित्ता, जाव सव्वालंकार-विभूसिया सेणिएणं रण्णा सद्धिं उरालाई जाव माणुसगाई भोगभोगाई भुंजमाणी विहरइ / न मे दिट्टाओ देवीओ देवलोगंसि, सक्खं खलु इमा देवी / जइ इमस्स सुचरियस्स तव-नियम-बंभचेर-वासस्स कल्लाणे फलवित्ति-विसेसे अत्थि, वयमवि आग-मिस्साणं इमाइं एयारूवाई उरालाई जाव विहरामो / से तं साहुणी। ___ अहो नु चेल्लणादेवी महर्द्धिका यावत् महासुखा या स्नाता, कृत-बलिकर्मा, यावत्कृतकौतुक-मङ्गल-प्रायश्चित्ता, यावत्सर्वालङ्कार-विभूषिता श्रेणिकेन. राज्ञा सार्द्धमुदारान् यावद् मानुषकान् भोगभोगान् भुञ्जन्ती विहरति /