________________ 444 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् दशमी दशा भूत्वागारादनगारितां प्रव्रजेत् ? हन्त, प्रव्रजेत् / स नु तेनैव भव-ग्रहणे सिद्धयेद् यावत्सर्वदुःखानामन्तं कुर्यान्नायमर्थः समर्थः / पदार्थान्वयः-समणाउसो-हे आयुष्मन् ! श्रमण ! एवं खलु-इस प्रकार निग्गंथो वा-निर्ग्रन्थ अथवा (निग्गंथी वा-निर्ग्रन्थी) णिदाणं-निदान-कर्म किच्चा-करके तस्स ठाणस्स-उसी स्थान पर अणालोइय–बिना उसका आलोचन किये उससे अप्पडिक्कते-बिना पीछे हटे सव्वं तं चेव-शेष वर्णन सब पूर्ववत् है / से णं-वह मुंडे भवित्ता-मुण्डित होकर आगाराओ-घर से निकल कर अणागारियं-अनगारिता-साधु-वृत्ति पव्वइज्जा-ग्रहण करेगा? गुरु कहते हैं हंता-हां, पव्वइज्जा-ग्रहण कर सकेगा / से णं-वह फिर तेणेव-उसी जन्म .. में भवग्गहणेणं-बार-२ जन्म ग्रहण करने में सिज्झज्जा-सिद्ध होगा अर्थात् बार-२ जन्म-ग्रहण को रोक सकेगा और जाव-यावत् सव्वदुक्खाणं-सब दुःखों का अंत करेज्जा-अन्त करेगा णो तिण्डे समढे-यह बात सम्भव नहीं / मूलार्थ-हे आयुष्मन् ! श्रमण ! इस प्रकार निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी निदान कर्म करके उसका उसी स्थान पर बिना आलोचन किये और उससे बिना पीछे हटे-शेष वर्णन पूर्ववत् ही है | क्या वह मुण्डित होकर और घर से निकल कर दीक्षा धारण कर सकता है ? हां, दीक्षा धारण कर प्रव्रजित हो सकता है | किन्तु वह उसी जन्म में भव-ग्रहण (बार-२ जन्म-ग्रहण) को रुद्ध कर सके और सब दुःखों का अन्त कर सके, यह बात सम्भव नहीं / टीका-इस सूत्र में वर्णन किया गया है कि वह निदान-कर्म करने वाला व्यक्ति अपने संकल्पों के अनुसार उन्हीं कुलों में जन्म धारण करता है, जिनसे दीक्षा ग्रहण करते समय किसी प्रतिबन्धक के उपस्थित होने की संभावना न हो / तदनुसार ही वह दीक्षा ग्रहण कर भी लेता है, किन्तु निदान-कर्म करने का उसको यह फल मिलता है कि वह उसी जन्म में मोक्ष-प्राप्ति नहीं कर सकता, क्योंकि फल-स्वरूप वही कुल दीक्षा-ग्रहण में बाधक न होता हुआ भी मोक्ष प्राप्त करने में बाधक हो जाता है / यद्यपि उसके चित्त में संयम की रुचि अधिक थी तथापि उक्त कुलों में उत्पन्न होने की इच्छा–मात्र के कारण वह सब दुःखों का उसी जन्म में क्षय करने में समर्थ नहीं हो सकता / हां, इतना अवश्य