________________ म 442 . . . दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् दशमी दशा एवं खलु श्रमण! आयुष्मन् ! मया धर्मः प्रज्ञप्तः / यावत् स च | पराक्रमन् दिव्य-मानुषकेषु काम-भोगेषु निर्वेदं गच्छेत्; मानुषकाः खलु काम-भोगा अधुवा अशाश्वता यावद् विप्रहेया दिव्या अपि खलु काम-भोगा अधुवा यावत्पुनरागमनीयाः / सन्ति अस्य तपोनियमादेविद् वयमप्यागमिष्यति यानीमानि भवन्ति अन्त-कुलानि वा प्रान्त-कुलानि वा तुच्छ-कुलानि वा दरिद्र-कुलानि वा कृपण-कुलानि वा भिक्षुक-कुलानि वा, एषामन्यतरस्मिन्कुले पुंस्त्वेवैष मे आत्मा पर्याये सुनिर्हतो भविष्यति / तदेतत्साधु / पदार्थान्वयः-समणाउसो-हे आयुष्मन् ! श्रमण ! एवं खलु-इस प्रकार निश्चय से मए-मैंने धम्मे-धर्म पण्णत्ते-प्रतिपादन किया है | जाव-यावत् से य-वह निर्ग्रन्थ परक्कममाणे-धर्म में पराक्रम करता हुआ दिव्वमाणुस्सएहिं-दिव्य और मनुष्यों के काम-भोगेहि-काम-भोगों के विषय में निव्वेयं-वैराग्य-भाव को गच्छेज्जा-प्राप्त करे क्योंकि माणुसगा-मनुष्यों के काम-भोगा-काम-भोग खलु-निश्चय से अधुवा-अनिश्चित और असासया-अनित्य हैं जाव-यावत् किसी न किसी समय विप्पजहणिज्जा-त्याज्य हैं और दिव्वावि-देवों के काम-भोगा-काम-भोग खलु-निश्चय से अधुवा-अनिचित और जाव-यावत् पुणरागमणिज्जा-बार-२ आने और जाने वाले होते हैं | यदि इमस्स-इस तवनियम-तप और नियम का विशेष फल संति-है तो वयमवि-हम भी आगमेस्साणं-आगामी काल में जाई-जो इमाई-ये अंत-कुलाणि-नीच-कुल पंत-कुलाणि-अधम-कुल तुच्छ-कुलाणिदरिद्र-कुल किवण-कुलाणि वा-कृपण-कुल अथवा भिक्खाग-कुलाणि-भिक्षुक-कुल भवंति हैं एसिं णं-इनमें से अण्णतरंसि-किसी एक कुलंसि-कुल में पुमत्ताए-पुरुष-रूप से एस-यह मे-मेरी आया-आत्मा उत्पन्न हो जावे जिससे परियाए-संयम-पर्याय में सुणीहडे भविस्सति-सुख-पूर्वक निकल सकेगी से तं साहू-यही ठीक है / मूलार्थ-हे आयुष्मन् ! श्रमण ! इस प्रकार मैंने धर्म प्रतिपादन किया है / वह निर्ग्रन्थ धर्म में पराक्रम करता हुआ देव और मनुष्य सम्बन्धी काम-भोगों के विषय में वैराग्य प्राप्त करता है; मनुष्यों के काम-भोग अनिश्चित और अनित्य हैं, अतः किसी न किसी समय अवश्य छोड़ने /