Book Title: Dasha Shrutskandh Sutram
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Aatmaram Jain Dharmarth Samiti

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Page 517
________________ 60 1 दशमी दशा हिन्दीभाषाटीकासहितम् / 446 इस प्रकार धर्म प्रतिपादन किया है / यह निर्ग्रन्थ-प्रवचन सर्वोत्कृष्ट है / इसकी शिक्षा के अनुसार जो कोई निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी संयम मार्ग में पराक्रम करता है और उसमें प्रयत्न-शील हो कर सब प्रकार के काम-विकारों से अपने चित्त को हटा देता है, संग से भार रहित हो जाता है और सब तरह के स्नेह से दूर ही रहता है वह चारित्र-शुद्ध और निर्मल हो जाता है तथा उसका चरित्र दृढ़ या परिपक्व हो जाता है / कहने का तात्पर्य इतना ही है कि आत्मा काम-विकार, राग और स्नेह से रहित हो जाता है तब उसका चरित्र दर्पण के समान निर्मल हो जाता है / ____ अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि उक्त तीनों से निवृत्ति किस प्रकार हो सकती है ? इसका समाधान सूत्रकार ने स्वयं ही कर दिया है कि निर्ग्रन्थ प्रवचन में दृढ़ विश्वास होने से सहज ही में इनसे निवृत्ति हो सकती है, क्योंकि जब किसी को निर्ग्रन्थ-प्रवचन में दृढ़ विश्वास हो जायगा तो वह आत्म-स्वरूप की खोज में लग जायगा और आत्मा को कर्म-बन्धन से विमुक्त करने के लिये तदुचित क्रियाओं में प्रयत्न-शील हो जायगा, जिसके कारण उसका आत्मा निरायास ही शुद्ध-बुद्ध-भाव को प्राप्त हो जायगा / सम्पूर्ण कथन का सारांश यह निकला कि निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर दृढ़ विश्वास करना चाहिए, जिससे राग आदि शत्रु दूर हों और अपनी आत्मा का कल्याण हो / ___ अब सूत्रकार फिर इसी से सम्बन्ध रखते हुए कहते हैं: तस्स णं भगवंतस्स अणुत्तरेणं णाणेणं अणुत्तरेणं दंसणेणं अणुत्तरेणं परिनिव्वाणमग्गेणं अप्पाणं भावे-माणस्स अणंते अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवल-वरनाण-दसणे समुपज्जेज्जा। __ तस्य नु भगवतोऽनुत्तरेण ज्ञानेनानुत्तरेण दर्शनेनानुत्तरेण परिनिर्वाणमार्गेणात्मानं भावयतोऽनन्तमनुत्तरं निर्व्याघातं निरावरणं कृत्स्नं प्रतिपूर्णं केवल-वर-ज्ञान-दर्शनं समुपपद्येत / __पदार्थान्वयः-तस्स णं-उस भगवंतस्स-भगवान् के अणुत्तरेणं-अनुत्तर णाणेणं-ज्ञान से अणुत्तरेणं-सर्वोत्तम दंसणेणं-दर्शन से अणुत्तरेणं-श्रेष्ठ परिनिव्वाणमग्गेणं-कषायों के / उपशम या क्षय मार्ग से अप्पाणं-अपनी आत्मा की भावेमाणस्स-भावना करते हुए अर्थात्

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