________________ Don 428 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् दशमी दशा देवीओ अभिमुंजिय परियारेति / संति इमस्स तव-नियमस्स, तं सव्वं / जाव एवं खलु समणाउसो निग्गंथो वा निग्गंथी वा णिदाणं किच्चा तस्स ठाणस्स अणालोइय अप्पडिक्कते तं जाव विहरति / एवं खलु श्रमण ! आयुष्मन् ! मया धर्मः प्रज्ञप्तः / यावन्मानुषकाः खलु काम-भोगा अध्रुवाः, तथैव / सन्त्यूर्ध्वं देवा देवलोकेषु / नान्येषां . देवानामन्यो देवोऽन्यां देवीमभियुज्य परिचारयन्ति, ते नात्मनैवात्मानं विकृत्य परिचारयन्ति | आत्मीया देव्योऽभियुज्य परिचारयन्ति / सन्त्यस्य तपोनियमस्य-तत्सर्वम्, यावत्खलु श्रमण ! आयुष्मन् ! निर्ग्रन्थः (निर्ग्रन्थी वा) निदानं कृत्वा तत्स्थामनालोच्य (ततः) अप्रतिक्रान्तः-तद् यावद् विहरति / पदार्थान्वयः-समणाउसो-हे आयुष्मन् ! श्रमण ! एवं खलु-इस प्रकार मए मैंने धम्मे धर्म पण्णत्ते-प्रतिपादन किया है | जाव-यावत् माणुसगा-मनुष्य सम्बन्धी खलु-निश्चय से काम-भोगा-काम-भोग अधुवा-अनियत हैं तहेव-शेष सब वर्णन पूर्ववत् ही है / उ-ऊपर देवलोगंसि-देव-लोक में देवा-देव संति हैं / वे अण्णेसिं-दूसरे देवाणं-देवों की अण्णे देवे-दूसरा देव अण्णं-दूसरी देवि-देवी को अभिमुंजिय-अपने वश में करके णो परियारेति-उनको मैथुन में प्रवृत्त नहीं करते अप्पणो चेव-अपनी ही अप्पाणं-आत्मा को वेउविय-वैक्रिय करके उसके साथ णो परियारेति-मैथुन-क्रिया नहीं करते किन्तु अप्पणिज्जियाओ-केवल अपनी ही देवीओ-देवियों को अभिमुंजिय-अपने वश में करके परियारेंति-भोगते हैं / यदि इमस्स-इस तवोनियमस्स-तप और नियम के फल संति हैं तं-वह सव्वं-सब पहले के समान ही जानना चाहिए / जाव-यावत् एवं खलु-इस प्रकार निग्गंथो-निग्रन्थ वा-अथवा निग्गंथी-निर्ग्रन्थी वा-समुच्चय अर्थ में है णिदाणं-निदान किच्चा-करके फिर तस्स-उस ठाणस्स-स्थान पर अणालोइय-बिना आलोचना किये अप्पडिक्कते-उससे बिना पीछे हटे तं जाव-शेष पूर्ववत् ही है विहरइ-देव-रूप से विचरण करता है।