________________ - 318 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् नवमी दशा की उपार्जना करता है / क्योंकि वह उनको जिनका आत्मा श्रुत या चारित्र रूप धर्म में तल्लीन हो रहा था उससे हटा कर पांच आस्रवों में लगा देता है / इस सूत्र से शिक्षा लेनी चाहिए कि धर्म-कृत्यों से किसी का चित्त नहीं फेरना चाहिए / यहां सर्ववृत्ति-रूप धर्म के विषय में कहा गया है, उपलक्षण से यह देश-वृत्ति धर्म के विषय में भी जान लेना चाहिए / . कतिपय हस्त-लिखित प्रतियों में “सुतवस्सियं” पद के स्थान पर “सुसमाहियं (सुसमाहितं) पाठ मिलता है तथा कहीं-२ “संजयं सुतवस्सियं" इस सारे पाठ के स्थान पर “जे भिक्खु जगजीवणं” ऐसा पाठ पाया जाता है / इसका तात्पर्य यह है कि जो साधु अहिंसक वृत्ति से अपना जीवन व्यतीत करता है उसको धर्म से हटाने वाला इत्यादि / किन्तु इन पाठान्तरों से अर्थ में कोई विशेष भेद नहीं पड़ता | सबका लक्ष्य एक ही है कि किसी व्यक्ति को भी धार्मिक कृत्यों से नहीं हटाना चाहिए / ध्यान रहे कि जिस प्रकार किसी को धर्म से हटाने में उक्त कर्म की उपार्जना होती है उसी प्रकार दूसरों को धर्म में प्रवृत्त करने से उक्त कर्म का क्षय भी हो जाता है / . अब सूत्रकार उन्नीसवें स्थान का विषय वर्णन करते हैं :तहेवाणंत-णाणीणं जिणाणं वरदंसिणं / . तेसिं अवण्णवं बाले महामोहं पकुव्वइ / / 16 / / तथैवानन्त-ज्ञानानां जिनानां वरदर्शिनाम् / तेषामवर्णवान् बालो महामोहं प्रकुरुते / / 16 / / पदार्थान्वयः-तहेव-उसी प्रकार अणंत-णाणीणं-अनन्त ज्ञान वाले जिणाणं-'जिन' देवों के वर-श्रेष्ठ दंसिणं-दर्शियों के तेसिं-उनकी अवण्णवं-निन्दा करने वाला बाले–अज्ञानी महामोहं-महा-मोहनीय कर्म की पकुव्वइ-उपार्जना करता है / मूलार्थ-जो अज्ञानी पुरुष अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन वाले जिनेन्द्र देवों की निन्दा करता है वह महा-मोहनीय कर्म के बन्धन में आ जाता है / टीका-इस सूत्र में जिनेन्द्रों की निन्दा करने वालों के विषय में कहा गया है / अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन के धारण करने वाले 'जिन' भगवान् क्षाविक दर्शन के - -