________________ 330 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् नवमी दशा किसी-२ लिखित प्रति में 'जिणपूयट्ठी' के स्थान पर 'जणपूयट्ठी' पाठ मिलता है / उसका तात्पर्य यह है कि जनता में प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए उक्त मिथ्या भाषण करता है / वह मूर्ख उक्त कर्म के साथ साथ 'दुर्लभ बोधादि कर्मों की भी उपार्जना करता है, फलतः उसको अनियत समय तक संसार-चक्र में परिभ्रमण करना पड़ता है। ___ इस प्रकार महा-मोहनीय कर्म के तीस स्थानों का वर्णन कर सूत्रकार अब तद्विषयक उपदेश का वर्णन करते हैं : एते मोहगुणा वुत्ता कम्मंता चित्त-वद्धणा / ' जे तु भिक्खु.विवज्जेज्जा चरिज्जत्त-गवेसए / / एते मोहगुणा उक्ताः कर्मान्ताश्चित्त-वर्द्धनाः / याँस्तु भिक्षुर्विवर्जेच्चरेदात्म-गवेषकः / / पदार्थान्वयः-एते-ये मोहगुणा-मोह से उत्पन्न होने वाले गुण (दोष) वुत्ता-कथन किये गये हैं / ये कम्मन्ता-अशुभ कर्म के फल देने वाले और चित्त-वद्धणा-चित्त की मलिनता को बढ़ाने वाले होते हैं जे-जिनको तु-निश्चय से भिक्खु-भिक्षु.विवज्जेज्जा-छोड़ दे और वह अत्त-गवेसए-आत्मा की गवेषणा करने वाला चरिज्ज-सदाचार में प्रवृत्ति करे / मूलार्थ-अशुभ कर्मों के फल देने वाले और चित्त की मलिनता को बढ़ाने वाले ये (पूर्वोक्त) मोह से उत्पन्न होने वाले गुण (दोष) कथन किये गये हैं | जो भिक्षु आत्मा की गवेषणा में लगा हुआ है वह इनको छोड़कर संयम क्रिया में प्रवृत्ति करे / ___टीका-इस सूत्र में आत्म-गवेषक भिक्षु को उपदेश दिया गया है / पूर्वोक्त तीस स्थान मोह कर्म के अथवा मोह शब्द से आठों कर्मों के उत्पन्न करने वाले कथन किये गये हैं / ये मोह के गुण अर्थात् अगुण हैं / क्योंकि प्राकृत भाषा होने से यहां 'गुणेहिं साहु-अगुणेहिं साहु' के समान गुण के पूर्व के अकार का लोप हो गया है / इनका परिणाम आत्मा के लिए अशुभ होता है, अतः सूत्रकार ने 'कर्मान्ताः' पद दिया है / इसके