________________ ___320 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् नवमी दशा दूर करता है, उस मार्ग की निरन्तर निन्दा कर अपने और दूसरों के चित्त को उससे फेरता है, अपनी झूठी युक्तियों से न्याय-संगत मार्ग को अन्याय-युक्त सिद्ध करता है और उसकी निन्दा करता है वह महा-मोहनीय कर्म की उपार्जना करता है / सूत्र में 'दुडे' शब्द आया है / उसके 'दुष्ट' और 'द्वेषी' दो अर्थ हैं / 'अवयरई: क्रिया-पद के भी 'अपहरति' और 'अपकरोति' दो ही अर्थ हैं / यहां पर इसका अर्थ अपकार रूप ही लिया गया है अर्थात् जो न्याय–मार्ग पर चलते हुए व्यक्ति को उससे हटा कर उसका अपकार करता है / 'तिप्पयंतो' का अर्थ 'तर्पयन्' अर्थात् निन्दा करता हुआ है, क्योंकि 'तिप्प (तृप)' धातु निन्दार्थक भी है / 'भावयति' का अर्थ 'निन्दया द्वेषण वा वासयति परमात्मानञ्च' है इत्यादि / शेष स्पष्ट ही है / अब सूत्रकार क्रमागत इक्कीसवें स्थान में आचार्य और उपाध्याय की निन्दा के विषय में निम्नलिखित सूत्र कहते हैं : आयरिय-उवज्झाएहिं सुयं विणयं च गाहिए / ते चेव खिंसइ बाले महामोहं पकुव्वइ / / 21 / / आचार्योपाध्यायाभ्यां श्रुतं विनयञ्च ग्राहितः / तानेव खिंसति बालो महामोहं प्रकुरुते / / 21 / / पदार्थान्वयः-आयरिय-आचार्य उवज्झाएहिं और उपाध्याय जिन्होंने सुयं-श्रुत च-और ! विणयं-विनय शिष्य को गाहिए-ग्रहण कराया है अर्थात् पढ़ाया है बाले अज्ञानी च-यदि ते एव-उन्हीं की खिंसइ-निन्दा करता है तो महामोह-महा-मोहनीय कर्म की पकुव्वइ-उपार्जना करता है / मूलार्थ-जिन आचार्य और उपाध्यायों की कृपा से श्रुत और विनय की शिक्षा प्राप्त हुई है यदि अज्ञानी उन्हीं की निन्दा करने लगे तो महा-मोहनीय कर्म की उपार्जना करता है | टीका-इस सूत्र में आचार्यों और उपाध्यायों की निन्दा के विषय में कथन किया गया है / जिन आचार्यों और उपाध्यायों ने श्रुत और विनय धर्म की शिक्षा दी, यदि ! अज्ञानी शिष्य उन्हीं की निन्दा करता हुआ कहे कि ज्ञान की अपेक्षा से आचार्य या