________________ र 286 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् सप्तमी दशा - - अहाकप्पं, अहामग्गं, अहातच्चं सम्मं काएण फासित्ता, पालित्ता, सोहित्ता, तीरित्ता, किट्टित्ता, आराहित्ता आणाए अणुपालित्ता यावि भवति / / 12 / / एक-रात्रिकी भिक्षु-प्रतिमां सम्यगनुपालयतोऽनगारस्येमानि त्रीणि स्थानानि हिताय, शुभाय, क्षमायै, निःश्रेयसाय, अनुगामिकतायै भवन्ति / तद्यथा-अवधि-ज्ञानं वा तस्य समुत्पद्येत, मनःपर्यव-ज्ञानं वा तस्य समुत्पद्येत, केवल-ज्ञानं वा तस्यासमुत्पन्न-पूर्वं समुत्पद्येत / एवं खल्वेषैक-रात्रिकी भिक्षु-प्रतिमा यथासूत्रं, यथाकल्पं, यथामार्ग, यथातत्त्वं सम्यक् कायेन स्पृष्टा, पालिता, शोधिता, तीर्णा, कीर्तिता, आराधिता-ज्ञयानुपालिता चापि भवति / / 12 / / पदार्थान्वयः-एग-राइयं-एक रात्रि की भिक्खु-पडिम-भिक्षु-प्रतिमा को सम्म-अच्छी तरह अणुपालेमाणस्स-पालन करते हुए अणगारस्स-अनगार को इमे-ये वक्ष्यमाण तओ-तीन ठाणा-स्थान हियाए-हित के लिए सुहाए-सुख के लिए खमाए-शक्ति के लिए अणुगामियत्ताए भविष्य में सुख के लिए और निसेस्साए-कल्याण के लिए भवंति-होते हैं, तं जहा-जैसे ओहि-नाणे-अवधि-ज्ञान अथवा मनःपर्यवज्ञान से-उसको समुपज्जेज्जा-उत्पन्न हो जाता है वा-अथवा केवल-नाणे-केवल-ज्ञान असमुप्पन्नपुव्वे-जो पहले नहीं से-उसको समुपज्जेज्जा-उत्पन्न हो जायगा एवं-इस प्रकार खलु-निश्चय से एसा-यह एग-राइया-एक रात्रि की भिक्खु-पडिमा भिक्षु-प्रतिमा अहासुयं-सूत्रों के अनुसार अहाकप्पं-प्रतिमा के आचार के अनुसार अहामग्गं-प्रतिमा के ज्ञानादि मार्ग के अनुसार अहातच्च-तत्त्व के अनुसार अथवा सम्म-अच्छी तरह काएणं-शरीर से फासित्ता-स्पर्श करते हुए पालित्ता-पालन की हुई सोहित्ता-शोधन की हुई तीरित्ता-समाप्त की हुई किट्टिता-कीर्तन की हुई आराहित्ता-आराधन की हुई आणाए-आज्ञा से अणुपालित्ता यावि भवति-निरन्तर पालन की जाती है / मूलार्थ-एक रात्रि की भिक्षु-प्रतिमा का अच्छी तरह से पालन करते हुए मुनि को ये तीन स्थान हित, सुख शक्ति, मोक्ष और अनुगामिता के